रात डसती थी डस रहे दिन भी
अब तिरी याद में कटे दिन भी
क्या कहें उनकी इन अदाओं को
दूर बैठे हैं वस्ल के दिन भी
क्यूँ शिकायत करूँ मैं रातों से
अब सियाही में ढल गए दिन भी
हमने काटीं है खार सी रातें
और देखें हैं गुल भरे दिन भी
ये शबे ग़म भी बीत जाएगी
बीत जाएँगे ये बुरे दिन भी
वो गए कहके आ रहे हैं अभी
फिर नहीं आए ईद के दिन भी
हमने देखा है उगते ‘सूरज’ को
हमने देखें हैं डूबते दिन भी
डॉ सूर्या बाली 'सूरज'