वतन के शहीदों ज़रा आँख खोलो
वतन के शहीदों ज़रा आँख खोलो,
ये देखो तुम्हारा वतन जल रहा है।
जिसे तुमने ख़ून-ए-ज़िगर देके सींचा,
गुलों से भरा वो चमन जल रहा है॥
छीनते क्यूँ हैं ये हम ग़रीबों का प्यार,
जाति-मज़हब के बन बैठे जो ठेकेदार,
पाप बन कर जमीं पे हैं ये जी रहे,
देख कर इनको सारा गगन जल रहा है॥
जीने देते नहीं जग को आराम से,
इनको मतलब नहीं है सही काम से।
आग नफ़रत की इस क़द्र फैला दिये,
जिससे उनका ही अब तन बदन जल रहा है॥
जिसके ख़ातिर यहाँ तूने क़ुरबानी दी,
शौक से अपनी हर शै यहाँ फ़ानी की,
अब वही आशियाँ फूकते हैं तेरा,
देख लो अब तो चैन-ओ-अमन जल रहा है॥
रहबरी तेरी कुछ कम कर न सकी,
तेरी राहों पे कोई भी चल न सका,
फिर गया पानी अब तेरी उम्मीद पर,
तुमने देखा था जो वो सपन जल रहा है॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
तू याद बहुत आई मौसम ने जब सताया
तू याद बहुत आई मौसम ने जब सताया।
तारों पे छेड़ी सरगम, नगमों को गुनगुनाया॥
तनहाई क्या होती है, मालूम न था मुझको,
अब तुमसे ज़ुदा होके, ये राज़ समझ पाया॥
तारों पे छेड़ी सरगम...........
सोचा की जाम पीके, ही तुझको भूल जाऊँ,
मैं भूल गया ख़ुद को, तुमको न भुला पाया॥
तारों पे छेड़ी सरगम...........
तेरे गेसुओं के खुशुबू, मेरे पास तो अब भी है,
तेरा चाँद सा वो मुखड़ा, नज़रों मे है समाया॥
तारों पे छेड़ी सरगम...........
तुझको ही ख़ुदा माना, तेरी ही इबादत की,
तुझको ही सनम दिल मे, “सूरज” ने है बसाया॥
तारों पे छेड़ी सरगम...........
तू याद बहुत आई मौसम ने जब सताया।
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
शाम ढलने लगी, चाँद दिखने लगा
शाम ढलने लगी, चाँद दिखने लगा,
तेरी यादों का लश्कर निकलने लगा।
ऐसा छाया नशा कहकशां देखकर,
टूट के दिल मेरा ये बिखरने लगा ॥
बज़्म मे लोग थे, फिर भी वीरान था,
तुमसे मिलने का बस मेरा अरमान था।
ढूंढ के थक गयीं, जब निगाहें तुम्हें,
दर्द बढने लगा, गम सँवरने लगा॥
झील सी आँखें थीं, आँखों मे था नशा,
उस नशे में ही मदहोश था मयकदा।
वो पिलाते गए, हम भी पीते गए,
और फिर जाम मेरा छलकने लगा।।
ईद के चाँद हो, चाँद जैसी हसीं,
मैंने देखा नहीं तुझसा परदा नशीं।
आज बेपर्दा हो के, जो निकलें हो तुम,
दिल मेरा आज फिर से मचलने लगा॥
तुमने वादा किया था की आओगे तुम,
आके बाहों मे मेरी समाओगे तुम।
जब भी आहट हुई कोई दरवाजे पे,
ज़ोर से दिल मेरा ये धड़कने लगा।
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
ये तो माया है रब की, मै क्या कहूँ
दुनिया के उल्टी रीति की यारों, आओ दिखाऊँ झलकी।
मै क्या कहूँ, ये तो माया है रब की, मै क्या कहूँ॥
गया पहाड़ पे, पत्थर का एक टुकड़ा ढूंढ के लाया।
ले कर छेनी और हथौड़ी, मूरत एक बनाया॥
मैं बेचारा भूंखा सोऊँ, मूरत चांपे बर्फी।
मै क्या कहूँ, ये तो माया है रब की, मै क्या कहूँ॥
ईंटा गारा कर के हमने, मंदिर इक बनवाया।
बन चुन के तैयार हुआ तो, मै ही न घुस पाया॥
कहें अछूत है, घुसने न दे, ऐसी उनकी मर्जी।
मै क्या कहूँ, ये तो माया है रब की, मै क्या कहूँ॥
जिसने सारी दुनिया बनाई, उसके लिए घर बनवाते है।
पत्थर पीते दूध, दही और बच्चे भूंखे सो जाते हैं।।
हद हो गयी है “सूरज” देखो इनके पागलपन की।
मै क्या कहूँ, ये तो माया है रब की, मै क्या कहूँ॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
एक बहकी हुई अंगड़ाई की, आज रह रह के याद आती है।
एक बहकी हुई अंगड़ाई की, आज रह रह के याद आती है।
अपनी बिछड़ी हुई परछाई की, आज रह रह के याद आती है।।
थे बहुत, वो न थे, चाहत थी जिनकी आँखों मे,
दरमियाँ बज़्म के तनहाई की, आज रह रह के याद आती है।
अपनी बिछड़ी हुई परछाई की, आज रह रह के याद आती है।।
गुजर गए, वो मेरे कूचे से, गैरों की तरह,
गूँज कानों में, उस सहनाई की, आज रह रह के याद आती है।
अपनी बिछड़ी हुई परछाई की, आज रह रह के याद आती है।।
वो शोखियाँ, वो अदाएं, वो चहकना उनका,
छोटी सी बात पे लड़ाई की, आज रह रह के याद आती है।
अपनी बिछड़ी हुई परछाई की, आज रह रह के याद आती है।।
हाले दिल अपना सुनाऊँ मैं तुम्हें क्या “सूरज”,
एक हसीना की बेवफ़ाई की, आज रह रह के याद आती है।
अपनी बिछड़ी हुई परछाई की, आज रह रह के याद आती है।।
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
मालिक बंदे तेरे...
देख ले मालिक बंदे तेरे, बिलकुल न शर्माते हैं।
तूने सारी दुनिया बनाई, तेरे लिए घर बनवाते हैं।
तेरे नाम पे लूट रहे हैं, देखो पंडा-मुल्ला,
बना रहे लोगों को उल्लू, कैसे खुल्लम खुल्ला !
दिल में नहीं रख पाते तुझको, मंदिर मस्जिद बनवाते हैं।
तूने सारी दुनिया बनाई ......
तेरे नाम पे लेते चढ़ावा, पेट ये भरते अपना,
तस्वी-माला ले करके बस काम है इनका ठगना!
इक दूजे के ख़ून के प्यासे, आपस मे लड़ जाते हैं।
तूने सारी दुनिया बनाई ......
इनके दिल मे प्रेम नहीं है, ना ही भाईचारा,
मज़हब का देते रहते हैं रोज़ नया ये नारा।
भटके हुए है ख़ुद लेकिन औरों को राह दिखाते हैं।
तूने सारी दुनिया बनाई ......
हर दिल मे नफ़रत फैला दी, प्यार कहाँ से लाएँ,
बोये पेड़ बबूल के हैं तो, आम कहाँ से पाएँ।
ख़ुद अपने ही घर मे, पागल होकर आग लगाते हैं।
तूने सारी दुनिया बनाई ......
घंटा बजाएँ ज़ोर ज़ोर से, भूँपू में चिल्लाएँ,
बहरा नहीं है तू लेकिन इनकी समझ न आए।
इनका पागलपन देखो, “सूरज” को दीप दिखाते हैं।
तूने सारी दुनिया बनाई, तेरे लिए घर बनवाते हैं।
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”