एक अरसा हुआ दीदार को तेरे तरसे
मेरी आँखों को शिकायत है ज़माने भर से
दर्दे दिल टपका है पलकों से पिघल कर ऐसे
जैसे सावन में कहीं झूम के बादल बरसे
तुम अगर रूबरू मिल करके जुदा होते तो
बोझ हट जाता बिछड़ने का हमारे सर से
तुमसे हो जाएगी इक रोज़ मुलाक़ात कहीं
लेके उम्मीद यही रोज़ मैं निकला घर से
दिल लगा करके तुझे जब से अपना बनाया
हो गयी तब से अदावत भी ज़माने भर से
टूटकर दिल का महल हो गया वीरान मगर
आज भी तेरी सदा आती है बाम ओ दर से
बिखरे गुलदस्ते खुले ख़त से है जाहिर 'सूरज'
होके मायूस गया होगा कोई इस दर से
डॉ॰ सूर्या बाली "सूरज"