दुनिया के शानो शौक़ की हसरत नहीं रही॥
अब ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं रही॥
जब से ख़ुदा तलाश लिया दिल के दरमियाँ,
दैरो-हरम में जाने की
फुर्सत नहीं रही॥
बिखरें है टूट टूट के घर दूर दूर तक,
रिश्तों में अब वो पहले सी चाहत नहीं रही॥
मुंसिफ़ वकील फ़ैसले बिकते हैं सब यहाँ,
बेदाग़ अब तो कोई अदालत नहीं रही॥
बेदाद के खिलाफ खड़े हैं बहुत से लोग,
लेकिन भगत के जैसी बग़ावत नहीं रही॥
उसने तलाश कर ली नई ज़िंदगी की राह,
शायद उसे भी मेरी ज़रूरत
नहीं रही॥
मैं जी रहा हूँ उससे जुदा होके भी मगर,
तन्हा सफ़र में चलने की हिम्मत नहीं रही॥
वो कह रहा था छोड़ दिया उसने रूठना,
मेरी भी अब मनाने की आदत
नहीं रही॥
“सूरज” समय की मार ने खंडहर बना दिया,
जिसपे गुरूर था वो इमारत नहीं रही॥
डॉ. सूर्या बाली “सूरज”