ज़िंदगी ज़ह्र हुई जाती है।
तिष्नगी क़ह्र हुई जाती है॥
रोक दी धार जबसे गंगा की,
ये नदी नह्र हुई जाती है॥
उससे मिलने की हसरतें अपनी,
उफनती लह्र हुई जाती है॥
चाल में उसके रवानी अब तो,
ग़ज़ल की बह्र हुई जाती है॥
उग रहे दश्त ईंट पत्थर के,
ये बस्ती शह्र हुई जाती है॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”