ख़्वाहिशें चाहतें अरमान मिटाता क्यूँ है॥
इस कदर इश्क़ में तू मुझको सताता क्यूँ है॥
साफ कर धूल की चादर जो जमी चेहरे पर,
आइने पे भला इल्ज़ाम लगाता क्यूँ है॥
लोग हँस देंगे मगर ग़म को नहीं बांटेगे,
दर्दे-दिल अपना सभी को तू सुनाता क्यूँ है॥
आइने तू भी ज़माने की तरह झूठा बन,
दाग़ चेहरों के सरे आम दिखाता क्यूँ है॥
न सही रोग से पर भूक से तो मरना है,
ऐ मसीहा मुझे मरने से डराता क्यूँ है॥
चुभते रहते हैं शब-ओ-रोज़ जो काँटों की तरह,
ऐसे रिश्तों को भी हँस करके निभाता क्यूँ है॥
खौफ़ लहरों से अगर इतना तुझे है “सूरज”
घर समंदर के किनारे पे बनाता क्यूँ है?
डॉ. सूर्या बाली “सूरज”