हादसों के इस शहर में घर तुम्हारा दोस्तों।
इसलिए वाज़िब भी है ये डर तुम्हारा दोस्तों।
तुझको पहुंचाएगा कैसे, तेरी मंज़िल के क़रीब,
खुद-ब-खुद भटका हुआ, राहबर तुम्हारा दोस्तों।
घर जला के, फिर से लौटे हो बुझाने के लिए,
ये रहा एहसान भी, मुझ पर तुम्हारा दोस्तों।
यूं छिपाके ग़म को पीना इतना भी अच्छा नहीं,
देखो जाये न छलक सागर तुम्हारा दोस्तों।
इतना इतराओ नहीं माटी के इस पुतले पे तुम,
ख़ाक मे मिल जाएगा पैकर तुम्हारा दोस्तों।
पहले खुद पत्थर बने, पत्थर के बुत को पूजके,
हो गया है दिल भी अब, पत्थर तुम्हारा दोस्तों।
मारोगे “सूरज” को पत्थर, उसका बुरा होगा नहीं,
डर है मुझको फूटे न कहीं सर तुम्हारा दोस्तों।।
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”