हर कदम पे राह मे रुशवाइयाँ थीं।
वो न था उसकी कदम-आराइयाँ थी॥
खींचने से रोक देती थी हंसी तस्वीर जो,
वो तो उसके हुस्न की रानाइयाँ थीं॥
दहशत मे जीता था जिसे मैं देखकर ,
वो तो मेरे जिस्म की परछाइयाँ थीं॥
डूबता जिसमे गया मैं दिन ब दिन,
झील सी आँखों की वो गहराइयाँ थीं॥
जिसके साये मे सुकुं मुझको मिला,
उनके ज़ुल्फों की घनी अमराइयाँ थीं॥
चैन से जीने भी मुझको न दिया,
ऐसी उसके जाने की तनहाइयाँ थीं॥
जिसपे “सूरज” फिर से चमका शाम को,
हाय वो क़ातिल गज़ब अंगड़ाइयाँ थीं॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”