सपने सलोने मुझको दिखाकर चला गया।
आंखो से मेरी नींद उड़ाकर चला गया॥
चाहा था मैंने जिसको दिलो जान से बढ़के,
ग़ैरों कि तरहा हाथ छुड़ाकर चला गया॥
मेरी दोस्ती का मुझको सिला इस तरह दिया,
दुश्मन को मेरा राज़ बताकर चला गया॥
मैं उसके इर्द गिर्द सिमट करके रह गया,
इक वो था सबको अपना बनाकर चला गया॥
हर शै में मुझको वो ही नज़र आ रहा है अब,
जादू वो मुझपे कैसा चलाकर चला गया॥
अब तक उसी ख़ुमारी मैं झूम रहा हूँ,
नज़रों से जाम वो जो पिलाकर चला गया॥
दरिया-ए-दिल में फेंक के वो छोटा सा पत्थर,
सोयी हुई लहरों को जगाकर चला गया॥
आंखे खुली तो देखा के तन्हाइयों में था,
मुझको वो कैसे मोड़ पे लाकर चला गया॥
“सूरज” कभी जो ख़्वाब में भी भूलता न था,
जाने वो कैसे मुझको भुलाकर चला गया॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”