शाम ढलने लगी, चाँद दिखने लगा,
तेरी यादों का लश्कर निकलने लगा।
ऐसा छाया नशा कहकशां देखकर,
टूट के दिल मेरा ये बिखरने लगा ॥
बज़्म मे लोग थे, फिर भी वीरान था,
तुमसे मिलने का बस मेरा अरमान था।
ढूंढ के थक गयीं, जब निगाहें तुम्हें,
दर्द बढने लगा, गम सँवरने लगा॥
झील सी आँखें थीं, आँखों मे था नशा,
उस नशे में ही मदहोश था मयकदा।
वो पिलाते गए, हम भी पीते गए,
और फिर जाम मेरा छलकने लगा।।
ईद के चाँद हो, चाँद जैसी हसीं,
मैंने देखा नहीं तुझसा परदा नशीं।
आज बेपर्दा हो के, जो निकलें हो तुम,
दिल मेरा आज फिर से मचलने लगा॥
तुमने वादा किया था की आओगे तुम,
आके बाहों मे मेरी समाओगे तुम।
जब भी आहट हुई कोई दरवाजे पे,
ज़ोर से दिल मेरा ये धड़कने लगा।
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”