ग़ज़ल
शहर का आदमी अब गाँव जाना चाहता है,
सुकून, आराम, खुशियाँ , चैन पाना चाहता है।
सांस लेना हुआ दुश्वार, पत्थरों के जंगल में,
बगीचे गाँव के फिर से सजाना चाहता है ।
दीवारों मे सिमट के रह गया जो रात-दिन ,
खुले आकाश मे कुछ पल बिताना चाहता है।
डर गया है, क़त्ल, बारूदी धमाके देखकर,
दिन ब दिन के हादसों से दूर जाना चाहता है।
कुछ न पाया चल के तन्हा इक उदासी के सिवा,
रिश्ते नातों का घरौंदा फिर बनाना चाहता है।
-डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”