शबनमी रातों में मुझको बुला रहा है कोई।
छेड़कर यादों को तेरी रुला रहा है कोई॥
गेसुओं की लटें सहला रहीं मेरा चेहरा,
थपकियाँ देके मुझे फिर सुला रहा है कोई॥
बंद हैं पलकें मेरी और ऐसा लगता है,
मुझको बाहों में उठाकर झुला रहा है कोई॥
किसी बच्चे की तरह गोद में लेकर मुझको,
नर्म हाथों से मेरा मुँह धुला रहा है कोई॥
भीड़ है चारों तरफ दुनिया के मेले में मगर,
ख़ुद को तनहाई के ग़म में घुला रहा है कोई॥
लिखके, गाकर और तस्वीर बनाकर “सूरज”,
याद माज़ी के दिनों की भुला रहा है कोई॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”