वो शख़्स अपनी बात पे क़ायम नहीं रहा।
इस बात का मुझे भी कोई ग़म नहीं रहा॥
इस ज़िंदगी का तन्हा सफ़र ख़ुद ही तय किया,
हमराज़, हमसफ़र कोई हमदम नहीं रहा॥
आने से उसके फिर से फिज़ा हो गयी हसीं,
तन्हाइयों में जीने का मौसम नहीं रहा॥
क्यूँ वार कर रहा है मेरी पीठ पे छुप के,
क्या सामने से लड़ने का दमखम नहीं रहा॥
मय, रिंद, जाम, साक़ी सभी रूठते गए,
अब मयक़दे में पीने का आलम नहीं रहा॥
हर रोग का इलाज़ था उस चारागर के पास,
मुफ़लिस के भूक का कोई मरहम नहीं रहा॥
“सूरज” जो चढ़ रहा है उसे ढलना पड़ेगा,
हरदम किसी का दुनिया में परचम नहीं रहा॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”