वो मेरा दोस्त है दुश्मन है न जाने क्या है।
वो मेरी मौत है धड़कन है न जाने क्या है॥
क्यूँ जुदा हो के भी हर वक़्त उसी को सोचूँ,
ये रिहाई है कि बंधन है न जाने क्या है॥
बस उमीदों के सहारे ही चला जाता हूँ,
आगे सहरा है कि गुलशन है न जाने क्या है॥
हमसफ़र बन के कोई साथ चला है लेकिन,
वो मुहाफ़िज़ है कि रहजन है न जाने क्या है॥
देखकर चाल चलन उसकी है कहना मुश्किल,
वो कुँवारी है कि दुल्हन है न जाने क्या है॥
ख़ुद से करता हूँ अकेले में बहुत सी बातें,
बेखुदी है कि ये उलझन है न जाने क्या है॥
मुफ़लिसी ने मेरी पहचान मिटा दी “सूरज”,
ये बुढ़ापा है कि बचपन है न जाने क्या है॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”