वतन के शहीदों ज़रा आँख खोलो,
ये देखो तुम्हारा वतन जल रहा।
जिसे तुमने ख़ून-ए-ज़िगर देके सींचा,
गुलों से भरा वो चमन जल रहा॥
छीनते क्यूँ हैं ये हम ग़रीबों का प्यार;
जाति-मज़हब के बन बैठे जो ठेकेदार,
पाप बन कर जमीं पे हैं ये जी रहे;
देख कर इनको सारा गगन जल रहा॥
जीने देते नहीं जग को आराम से;
इनका मतलब नहीं कुछ सही काम से,
आग नफ़रत की इस क़द्र फैला दिये;
जिससे उनका ही अब तन बदन जल रहा॥
जिसके ख़ातिर यहाँ तूने क़ुरबानी दी;
शौक से अपनी हर शै यहाँ फ़ानी की,
अब वही आशियाँ फूकते हैं तेरा;
देख लो अब तो चैन-ओ-अमन जल रहा॥
राहबरी तेरी कुछ कम कर न सकी,
तेरी राहों पे कोई भी चल न सका,
फिर गया पानी अब तेरी उम्मीदों पर,
तुमने देखा था जो वो सपन जल रहा॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”