मियाँ हम शहर से अब गाँव जाना चाहते हैं।
सुकूँ आराम खुशियाँ चैन पाना चाहते हैं॥
कफ़स में क़ैद रहके घुट रहे थे जो परिंदे,
खुले आकाश में कुछ पल बिताना चाहते हैं॥
उदासी के सिवा कुछ भी न पाये चल के तन्हा,
सफ़र में हमसफ़र फिर से बनाना चाहते हैं॥
अदावत और नफ़रत को मिटाकर दिल से अपने,
मुहब्बत के तराने गुनगुनाना चाहते हैं॥
हवा में शहर की अब ज़हर घुलता जा रहा है,
बगीचे गाँव के फिर से सजाना चाहते हैं॥
भुलाकर ज़िंदगी के हादसों को आम इन्सां,
कबूतर अम्न के हरसू उड़ाना चाहते हैं॥
महक बारूद की फैली है “सूरज” इस फिजाँ में,
वतन के रहनुमा ही घर जलाना चाहते हैं॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”