मजबूरियाँ इस दौर की समझने लगे हम।
हर आँख में है क्यूँ नमी समझने लगे हम॥
इंसान की ये बेबसी समझने लगे हम ॥
कटती है कैसे ज़िंदगी समझने लगे हम॥
रिंदों1 के घर के हाल तबाही को देखकर,
कितनी बुरी है मयकशी2 समझने लगे हम॥
पैबंद को हाथों से ढांक कर वो जब उठी,
मुफ़लिस3 बदन की बेबसी समझने लगे हम॥
कुछ इस तरह ग़मों से राब्ता4 रहा है कि,
दुख दर्द को भी अब खुशी समझने लगे हम॥
दिन देखिये चुनाव के नजदीक आ गए,
नेताओं की दरियादिली समझने लगे हम॥
घर-द्वार, ज़र-ज़मीन5, वक़्त क्या क्या लुट गया,
सब लुट गया तो आशिक़ी समझने लगे हम॥
जिसने अदा से नाज़ से जां मेरी ले लिया,
उसको ही अपनी ज़िंदगी समझने लगे हम॥
मासूम से चेहरे पे खौफ़ देख के “सूरज”,
इंसान की दरिंदगी समझने लगे हम॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
1. रिंदों = शराबियों 2. शराब पीने की लत 3. मुफ़लिस = ग़रीब 4. राब्ता = संबंध 5. ज़र-ज़मीन= धन दौलत और खेत