लिख नहीं जो सकता तू सच ख़बर ज़माने की।
बोल क्या ज़रूरत है फिर क़लम उठाने की॥
छोड़ दे ये हसरत भी दिल कहीं लगाने की।
सह नहीं जो सकता तू ठोकरें ज़माने की॥
धमकियाँ वो देता है मुझको ख़ाक कर देगा,
चाल चलता रहता है घर मेरा जलाने की॥
हमने इस मोहब्बत में इतने ज़ख्म खाये के,
अब नहीं रही हिम्मत फिर से दिल लगाने की॥
आज फिर से माज़ी की याद में मैं खोया हूँ,
कोशिशें भी जारी है तुझको भूल जाने की॥
तोड़ता है दिल मेरा और दोस्त कहता है,
क्या अदा है तेरी भी दोस्ती निभाने की॥
आजकल तो ग़ैरों की महफिलें सजाते हो,
है तुम्हें कहाँ फुर्सत अपना घर सजाने की॥
आँख में नमी दे दी दिल को चाक कर डाला,
ये सज़ाएँ दी तुमने मुझको मुस्कुराने की॥
जांच ले परख ले तू बार बार “सूरज” को,
इतनी जल्दी मत करना तुम क़रीब आने की॥
डॉ. सूर्या बाली “सूरज”