महफिल में सुनाने को ग़ज़ल कूदता हूँ मैं॥
ख़ैरात समझ करके ग़ज़ल लूटता हूँ मैं॥
ग़ालिब से कभी मीर से इक़बाल ज़ौक़ से,
मोमिन जिगर ज़फ़र से ग़ज़ल पूछता हूँ मैं॥
अल्लाह गुरु-ग्रंथ ख़ुदा गाड मानकर ,
भगवान समझ करके ग़ज़ल पूजता हूँ मैं॥
अब इश्क़ मोहब्बत के दायरे से निकलकर,
मज़दूर, किसानों में ग़ज़ल ढूढता हूँ मैं॥
चखता इसे सुनता इसे खोया हूँ इसी में,
छूता हूँ, देखता हूँ ग़ज़ल सूँघता हूँ मैं॥
जब बात दवाओं से ये “सूरज” नहीं बने,
बीमार के कानों में ग़ज़ल फूंकता हूँ मैं॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”