कभी काँटे बिछाते हैं कभी पलकें बिछाते हैं॥
सयाने लोग हैं मतलब से ही रिश्ते बनाते हैं॥
हमारे पास भी हैं ग़म उदासी बेबसी तंगी,
तुम्हें जब देख लेते हैं तो सब कुछ भूल जाते हैं॥
वो धमकी रोज देता है के घर मेरा जला देगा॥
बड़ी मासूमियत से हम उसे माचिस थमाते हैं॥
इबादत के लिए उसकी हमारा दिल ही काफी है,
न हम मंदिर बनाते हैं न हम मस्जिद बनाते हैं॥
ग़रीबों की गली में क़त्ल अरमानों का होता है,
जहां पर ख़्वाब पलने से ही पहले टूट जाते हैं॥
मुहब्बत के फसाने में वो ज़िंदा रहते हैं हरदम,
वफ़ा की राह में हँसकर जो अपना सर कटाते हैं॥
खुली आँखों से सपने देखते हैं जो यहाँ “सूरज”,
फ़लक पर चाँद तारों की तरह वो जगमगाते हैं॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”