दुनिया में रह के दुनिया से अंजान रह गया।
अपने ही घर में बनके मैं मेहमान रह गया॥
इंसानियत ही बन गया मज़हब फ़क़त मेरा,
हिन्दू न मैं रहा न मुसलमान रह गया॥
जितने भी थे ग़रीब वो मुंह ढक के सो गए,
बस रात भर वो जागता धनवान रह गया॥
नफ़रत फ़रेब-ओ-झूँठ के बनते रहे क़िले,
मज़हब रहा न दीन न ईमान रह गया॥
मंज़िल यही थी तेरी तू अब तक कहाँ रहा?
ये बात सबसे पूँछता शमशान रह गया॥
कहती थी जिस मसीहा को दुनिया कभी ख़ुदा,
सबके नज़र में बनके वो शैतान रह गया॥
बल्बों की रौशनी में भी खिलने लगे कंवल,
“सूरज” तमाशा देख के हैरान रह गया॥
डॉ. सूर्या बाली “सूरज”