तू कभी साहिल लगा है।
तू कभी मंज़िल लगा है॥
जिंदगी का ये सफर अब,
बिन तेरे मुश्किल लगा है॥
रूठ के जब से गया तू,
बस तुझी पे दिल लगा है॥
नासमझ जाना था तुझको,
आज तू आकिल1 लगा है॥
जाना पहचाना सा कोई,
क्यूँ मेरा क़ातिल लगा है॥
आज मुझको चाँदनी सा,
हुस्न-ए-कामिल2 लगा है॥
जान अब लेने को मेरी,
तेरे रुख़3 का तिल लगा है॥
ज़िंदगी की भीक अब ख़ुद,
मांगने क़ातिल4 लगा है॥
हर्फ़े-उलफ़त5 पढ़ न पाया,
इश्क़ में जाहिल6 लगा है॥
चोट खाकर चुप है लेकिन,
वो मुझे बिस्मिल7 लगा है॥
इस जहां में मुझको सूरज”
वो ही बस क़ाबिल लगा है ॥
डॉ. सूर्या बाली “सूरज”
1. आकिल= बुद्धिमान, अक़्लमंद, 2. कामिल = सम्पूर्ण सुंदरता 3. रुख़= चेहरा
4. क़ातिल=हत्यारा 5. हर्फ़े-उलफ़त=प्यार का अक्षर 6. जाहिल= निरक्षर, अनपढ़ 7. बिस्मिल= ज़ख़्मी