तुम्हारी बात इस दिल को अगर भाई नहीं होती।
तबीयत मेरी तुम पे इस क़दर आई नहीं होती॥
मोहब्बत क्या बला है इसको तू कैसे समझ पाता,
ए बंदे तू अगर ये ज़िंदगी पाई नहीं होती ॥
नशा दौलत-परश्ती का तुझे मगरूर कर देता,
अगर ये मौत इतना कड़वी सच्चाई नहीं होती॥
ज़रा सी बात पर मुझसे तअल्लुक तोड़ने वाले,
कभी टूटे हुए रिश्तों की भरपाई नहीं होती॥
ये मैखाना, ये पैमाना, ये साक़ी भी नही होता,
अगर वो बेवफ़ा जो इतनी हरजाई नहीं होती॥
बदन पे खाके पत्थर ये कहा मजनू ने दुनिया से,
मोहब्बत रास आ जाती तो रुशवाई नहीं होती॥
न ये “सूरज” कभी छुपता, न छाती ये घटा काली,
तुम्हारी जुल्फ़ बल खाके जो लहराई नहीं होती॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”