जीवन का जंजाल उठाना पड़ता है॥
सबको रोटी दाल जुटाना पड़ता है॥
रोकर, हँसकर, या फिर शिकवे करके ही,
रिश्तों को फिलहाल निभाना पड़ता है॥
करवाना हो काम अगर दफ़्तर में तो,
बाबू जी को माल थमाना पड़ता है॥
मुफ़लिस के घर होली क्या दिवाली क्या,
फाँका करके साल बिताना पड़ता है॥
ख़ुद को मालामाल बनाने ख़ातिर तो,
लोगों को कंगाल बनाना पड़ता है॥
बच्चों का है खेल नहीं ग़ज़लें कहना,
दिल का सच्चा हाल सुनाना पड़ता है॥
उनको खुश रखने की ख़ातिर ही “सूरज”,
ख़ुद को भी खुशहाल दिखाना पड़ता है॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”