जिगर का दर्द मेरे अश्क़(1) बन के बारहा(2) निकला।
पता मुझको चला जब, यार मेरा ग़ैर का निकला॥
फ़ना(3) कर दी खुशी से, जिसके ख़ातिर ज़िंदगी अपनी,
वही हर मोड पे ज़ालिम, बहुत ही बेवफ़ा निकला॥
किसी की इसमे क्या ग़लती मेरी किस्मत ही ऐसी है,
भलाई बरसों जिसके साथ की वो भी बुरा निकला॥
न ग़लती थी हवाओं की, न लहरों ने ख़ता की थी,
डुबाया जिसने कश्ती को, वो मेरा नाखुदा(4) निकला ॥
छुपाया था तुम्हारी याद को बरसों से सीने में,
छिड़ी जब बात तेरी तो, ग़मों का सिलसिला निकला॥
दवा देनी थी लेकिन वो ज़हर देता रहा मुझको,
हमारे दिल का चारागर(5) , अजी क़ातिल बड़ा निकला॥
भिकारी की तरह आया था मैख़ाने में वो प्यासा ,
मगर जब पी लिया उसने तो बनके बादशा निकला॥
मोहब्बत मान बैठे थे जिसे बचपन से हम “सूरज”,
जवानी मे फ़साना वो ग़ज़ब का हादसा निकला॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
अश्क़(1)=आँसू , बारहा(2)= बार बार, फ़ना(3)=मिटाना, नष्ट करना, नाखुदा(4)=नाविक , चारागर(5)= चिकित्सक,