जहां की भीड़ में तन्हा रहा हूँ॥
तुम्हारी याद में रोता रहा हूँ॥
न कोई कारवां राहें न मंज़िल,
अकेले ही सफ़र पे जा रहा हूँ॥
मेरी वीरानियाँ गुलज़ार कर दो,
अँधेरों से बहुत घबरा रहा हूँ॥
मेरी फ़ितरत में ही झुकना नहीं है,
हमेशा ज़ुल्म से लड़ता रहा हूँ॥
अभी ठहरो मुझे फ़ुर्सत नहीं है,
किसी की ज़ुल्फ़ को सुलझा रहा हूँ॥
शब-ए-फ़ुरकत क़यामत ढा रही है,
तेरी यादों में बस उलझा रहा हूँ॥
तड़प दीवानगी फ़ुरकत मिली है,
मुहब्बत कर के मैं पछता रहा हूँ॥
मेरे अ’शआर में तेरी कशिश है,
ग़ज़ल तुझपे ही मैं कहता रहा हूँ॥
कभी भी झूँठ से रिश्ता न रख्खा,
हमेशा सच का ही बंदा रहा हूँ॥
भले कोई भी मेरा साथ ना दे,
मगर दिल से ही मैं सबका रहा हूँ॥
कभी होगी तेरी नज़रे इनायत,
यही बस सोचकर जीता रहा हूँ॥
ख़बर कर दो मेरे दुश्मन को "सूरज",
सितारों से भी आगे जा रहा हूँ॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”