जब तेरी यादों के दरिया में उतर जाता हूँ मैं॥
भीग कर कागज़ की कश्ती सा बिखर जाता हूँ मैं॥
कैसी वहशत है जुनूँ है और ये दीवानापन,
तू ही तू हरसू नज़र आये जिधर जाता हूँ मैं॥
तेरे जाने से मेरी दुनिया फ़ना हो जाएगी,
सोचकर तनहाई को अक्सर सिहर जाता हूँ मैं॥
दर्द-ओ-ग़म के बोझ से जब टूटते हैं हौसले,
तेरी आँखों के इशारे से संवर जाता हूँ मैं॥
जिस शज़र पे हमने मिलकर नाम लिखा था कभी,
बेख़याली और उदासी में उधर जाता हूँ मैं॥
तेरी यादों का ये जंगल मंज़िलें न रास्ते,
ख़्वाब आँखों में लिए जाने किधर जाता हूँ मैं॥
एक सुहानी शाम का ढलता हुआ “सूरज” हूँ मैं,
तेरी रंगत देख के कुछ पल ठहर जाता हूँ मैं॥
डॉ. सूर्या बाली "सूरज"