क्यूँ ज़ख़्म को नासूर बनाने पे तुले हो
टूटे हुए रिश्ते को मिटाने पे तुले हो
दिल तोड़ के भी चैन तुम्हें हैं नहीं शायद
आँखों से भी अब नींद चुराने पे तुले हो
ख़ुद छोड़ के हमको तो अलग राह बना ली
अपनों का भी क्यूँ साथ छुड़ाने पे तुले हो
अंदाज़े वफ़ा किस लिए बदला है तुम्हारा
क्या हो गया जो मुझको भुलाने पे तुले हो
दीवार गिरानी है तो नफ़रत की गिराओ
क्यूँ नींव मुहब्बत की हिलाने पे तुले हो
तुम ज़िंदगी मेरी हो ये मालूम है तुमको
फिर भी मिरी हस्ती को मिटाने पे तुले हो
इक उम्र से बेदाद ज़माने की थी हमपे
अब तुम भी तो ‘सूरज’ को सताने पे तुले हो
डॉ. सूर्या बाली ‘सूरज’