वो मेरा दोस्त पुराना था उसे क्या कहता।
मेरा दुश्मन तो ज़माना था उसे क्या कहता॥
उसने कर रखा था मिलने का किसी से वादा,
उसको हर हाल में जाना था उसे क्या कहता॥
मैंने भी रोका नहीं जाने दिया लोगों तक,
उसको दुनिया भी दिखाना था उसे क्या कहता॥
गुलों से रंग चुराने की थी फितरत उसकी,
तितलियों जैसा निशाना था उसे क्या कहता॥
बेवफ़ाई भी किया उसने बताकर मुझसे,
दिल मेरा यूं भी जलाना था उसे क्या कहता॥
उसकी खुशियों के लिए ग़म भी सहे हैं हंस के,
दोस्ती उससे निभाना था उसे क्या कहता॥
उसने भी दुनिया का दस्तूर निभाया “सूरज”,
छोड़ के उसको भी जाना था उसे क्या कहता॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”