उसके आने की डगर अब देखता रहता हूँ मैं॥
लेके टूटे ख़्वाब शब भर जागता रहता हूँ मैं॥
रोज़ बनकर चाँद आँगन में मेरे आता है वो,
रोज़ उसकी चाँदनी में भीगता रहता हूँ मैं॥
इक अजब सी तिष्नगी है जो कभी बुझती नहीं,
किस नदी की जुस्तजू में घूमता रहता हूँ मैं?
कह रहे हैं लोग मैं पागल हूँ उसके इश्क़ में,
बेख़ुदी में नाम उसका बोलता रहता हूँ मैं॥
जानता हूँ ख़ाब उसके तोड़ देंगे नींद को,
फिर भी सोने का बहाना ढूँढता रहता हूँ मै॥
आईने में अक्स मेरा रहता उतनी देर तक,
ख़ुद को जितनी देर उसमें ताकता रहता हूँ मैं॥
छोडकर सूरज सितारे चाँद, बच्चों की तरह,
जुगनुओं के आगे पीछे भागता रहता हूँ मैं॥
मौज़ पर बहते हुए पत्ते का है अंजाम क्या?
बैठकर दरिया किनारे सोचता रहता हूँ मैं॥
कौन हूँ, क्या हूँ, कहाँ हूँ जी रहा हूँ किसलिए,
ख़ुद से “सूरज” आजकल यह पूछता रहता हूँ मैं॥
डॉ. सूर्या बाली “सूरज”