आज कल लोगों से मिलते हुए डर लगता है।
शायद मुझपे भी जमाने का असर लगता है।।
सहमा सहमा सा हर इंसान यहां है देखो,
साये मे मौत के अब अपना शहर लगता है॥
भटक रहा है ये इंसान ज़िंदा लाश लिए,
बड़ा बेजान सा ये राह-ए-सफर लगता है॥
न रहा प्यार- मोहब्बत न वो अपनापन,
अब तो शमशान के माफ़िक मेरा घर लगता है
ज़िंदगी हो गयी प्यासी अब लहू की ‘सूरज”
जान से भी बड़ा प्यारा इसे ज़र लगता है॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”