अभी भी गाँव में बचपन हमारे मुस्कराता है॥
कहानी रोज दादा अपने पोते को सुनाता है॥
ग़रीबी, भुकमरी, मंहगाई अब जीने नहीं देती,
हमारे गाँव का मंगरू मुझे आकर बताता है॥
ठिठुरता सर्द रातों में बिना कंबल रज़ाई के,
वो अपने पास गर्मी के लिए कुत्ता सुलाता है॥
वो बेवा गाँव में मेरे जो मुफ़लिस(1) है अकेली है,
उसे हर आदमी आसानी से भाभी बनाता है॥
यहाँ क़ानून है अंधा यहाँ सरकार है लंगडी,
है जिसके हाथ मे लाठी वही सबको नचाता है॥
जो पैसे के लिए ईमान खुद्दारी(2) नहीं बेचा,
वही इंसान चौराहे पे अब ठेला लगाता है॥
लुटाके हर खुशी अपनी जिसे पाला कभी "सूरज",
वही औलाद बूढ़े बाप माँ को भूल जाता है॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
1. मुफ़लिस=ग़रीब 2. खुद्दारी= आत्म-सम्मान